शनिवार, 13 जून 2015

सम्राट विक्रमादित्य जिनके नाम पर आज भी सम्वत चल रहा है

अनुश्रुत विक्रमादित्य ईसवी पूर्व 102 से ईसवी 15 तक उज्जैन (भारत) के राजा रहे।वे ज्ञान, वीरता और उदारशीलता की व्यक्तित्व-त्रयी थे। देवभाषा (संस्कृत) हो या भारतीय अन्य भाषाएँ, दादी-नानी के किस्से-कहानियां हों या किस्सागोई की अबूझ-पहेलियाँ, चारण-भाटों की बखानी बिरादावालियाँ हों या वाक्यानाविशों की गढ़ी इबारतें, कालपात्र हों या कीर्ति-स्तम्भ-सम्राट विक्रमादित्य की भूरी-भूरी प्रशंसा करते नहीं अघाते।
सूबेदार भगवानदीन सिंह सोमवंशी के अनुसार— मालवा का प्रसिध्द राजा गंधर्वसेन था.इसके तीन पुत्रों में शंख अल्पायु में ही मर गया,भरथरी योगी हो गया और विक्रमादित्य गद्दी पर बैठा। कथा–सरित्सागर के अनुसार वे, परमार वंश के राजा महेंद्रदित्य के पुत्र थे।
{{विक्रम का वंश-परिचय
वंश—सूर्य वंश
शाखा—परमार
गौत्र-वसिष्ठ
प्रवर-वसिष्ठ, अत्रि, सांकृति
वेद-यजुर्वेद
सूत्र-पारस्कर गृह्यसूत्र
कुलदेवी-कालिका
वृक्ष-पीपल
प्रमुख गद्दी-उज्जैन}}
सम्राट विक्रमादित्य युद्ध-कला एवम शस्त्र-संचालन में निष्णात थे। उनका सम्पूर्ण संघर्षों से भरे अध्यवसायी जीवन विदेशी आक्रान्ताओं, विशेषकर शकों के प्रतिरोध में व्यतीत हुआ। अंततः ईसा पूर्व 56 में उन्होंने शकों को परास्त किया, शकों पर विजय के कारण वे ‘शकारि’ कहलाये। और इस तरह ‘विक्रम-युग’ अथवा ‘विक्रम-सम्वत’ की शुरुआत हुई। आज भी भारत और नेपाल की विस्तृत हिन्दू परम्परा में यह पंचांग व्यापक रूप से प्रयुक्त होता है। विक्रमादित्य के शौर्य का वर्णन करते हुए समकालीन अबुलगाजी लिखता है— जहाँ परमार विक्रम का दल आक्रमण करता था वहाँ शत्रुओं की लाशों के ढेर लग जाते थे और शत्रुदल मैदान छोड़कर भाग जाते।
चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य की राजधानी उज्जैन थी। पुराणों एवम अन्य इतिहास ग्रंथों से पता चलता है कि अरब और मिश्र भी विक्रमादित्य के अधीन थे। विक्रमादित्य की अरब-विजय का वर्णन कवि जरहम किनतोई की पुस्तक सायर-उल-ओकुल में है। तुर्की की इस्ताम्बुल शहर की प्रसिध्द लाइब्रेरी मकतब-ए-सुल्तानिया में यह ऐतिहासिक ग्रन्थ है, उसमें राजा विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख है। जिसमें कहा गया है–
वे लोग भाग्यशाली है जो उस समय जन्मे और राजा विक्रम केराज्य में जीवन व्यतीत किया। वह बहुत दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ठ शासक था,जो हरेक व्यक्ति के बारे में सोचता था। उसने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच में फैलाया। अपने देश के सूर्य से भी तेज विव्दानों को इस देश में भेजा ताकि शिक्षा का उजाला फ़ैल सके। इन विव्दानों और ज्ञाताओं ने हमें भगवान की उपस्थिति और सत्य के सही मार्ग के बारे में बताकर एक परोपकार किया है। ये  विक्रमादित्य के निर्देश पर यहाँ आये।
यह शिलालेख हजरत मुहम्मद के जन्म के 165 वर्ष पहले का है।
विक्रमादित्य का प्रशस्ति-गान करती दो पुस्तकें आम प्रचलन में हैं-
1.बेताल पच्चीसी (बेताल पञ्चविंशति) इसमें पच्चीस कहानियाँ हैं। जब विक्रमादित्य विजित बेताल को कंधे पर लाद कर ले जाने लगे तो बेताल उन्हें एक समस्यामूलक कहानी सुनाता है। शर्त रहती है कि उसका समाधान जानते हुए भी यदि राजा नहीं बताएँगे तो उनके सिर के टुकडे-टुकडे हो जायेंगे और यदि राजा बोला तो बेताल मुक्त हो कर पेड़ पर लटक जावेगा। राजा ज्ञानवान थे, बुध्दिमान थे, वे समस्या का सटीक समाधान जानते थे। कहानियों का सिलसिला यूँ ही, चलता रहता है।
2.सिंहासन बत्तीसी(सिंहासन द्वात्रिंशिका) परवर्ती राजा भोज परमार को 32 पुतलियों से जड़ा स्वर्ण-सिंहासन प्राप्त हुआ। जब वे उस  पर  बैठने लगे तो उनमे से एक-एक कर पुतलियों ने साकार होकर सम्राट विक्रमादित्य की न्यायप्रियता, प्रजावत्सलता,वीरता से भरी कहानियाँ सुनाई और शर्त रखी कि यदि वे (राजा भोज) पूर्वज विक्रमादित्य के समकक्ष हैं, तभी उस सिंहासन की उत्तराधिकारी होगें! एम.आई.राजस्वी की पुस्तक राजा विक्रमादित्य के अनुसार, विक्रमादित्य को यह सिंहासन देवराज इंद्र ने दिया, जिसमें स्वर्ग की 32 शापित अप्सराएँ पुतलियाँ बनकर स्थित थीं, जिन्होंने अत्यंत निकट से देखी थी विक्रमादित्य की न्यायप्रियता।
सम्राट विक्रमादित्य का सम्बन्ध बड़ी ही आसानी से ऐसी घटना या स्मारक से जोड़ दिया जाता है, जिसका ऐतिहासिक विवरण अज्ञात है। जैसे कि, एक बार एक तांत्रिक अष्ट सिध्दियों को प्राप्त करने के लिए सर्वगुण संपन्न विक्रमादित्य की बलि देना चाहता था। वह तो भला हो बेताल का, जिसने विक्रमादित्य की न्यायप्रियता से उसे सत्य रहस्य बता दिया। बेताल का यह स्वार्थ रहा कि तांत्रिक के मरते ही वह भी मुक्त हो जायेगा। राजा विक्रमादित्य ने युक्ति से काम लिया और तांत्रिक का सिर काटकर यज्ञाग्नि के हवाले कर दिया- और राजा को अष्ट-सिध्दियां प्राप्त हो गयीं।
विक्रमादित्य स्वयं गुणी थे और विव्दानों, कवियों, कलाकारों के आश्रयदाता थे। उनके दरबार में नौ प्रसिध्द विव्दान- धन्वन्तरी, क्षपनक, अमरसिंह, शंकु, खटकरपारा, कालिदास, बेतालभट्ट वररूचि और वाराहमिहिर थे, जो नवरत्न कहलाते थे। राजा इन्हीं की सलाह से राज्य का संचालन करते थे। भविष्य-पुराण में आया है—
धन्वन्तरिः क्षपनकोमरसिंह शंकू बेतालभट्ट घटकर्पर कालिदासः.
ख्यातो वराहमिहिरो नृपते सम्भायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य।
धन्वन्तरी औषधिविज्ञान के ज्ञाता रहे,कवि कालिदास राजा के मंत्री रहे और वराह्महिर ज्योतिषविज्ञानी। उज्जैन तत्कालीन ग्रीनविच थी, जहाँ से मध्यान्ह की गणना की जाती थी। सम्राट वैष्णव थे पर शैव एवम शाक्त मतों को भी भरपूर समर्थन मिला। तब, संस्कृत सामान्य बोल-चाल की भाषा रही।
विक्रमादित्य के समय में प्रजा देहिक, देविक और भौतिक कष्टों से मुक्त थी। चीनी यात्री फाहियान लिखता है– देश की जलवायु सम और एकरूप है। जनसँख्या अधिक है और लोग सुखी हैं। राजधानी उज्जैन की शोभा का वर्णन करते हुए कवि कालिदास ने लिखा है —यह नगर स्वर्ण का एक कांतिमय खंड था, जिसका उपभोग करने के लिए उत्कृष्ट आचरण वाले देवता अपने अवशिष्ट पुण्यों के प्रताप के कारण स्वर्ग त्याग कर पृथ्वी पर उतर आये थे।
इतिहास में ऐसे अन्य राजाओं और सम्राटों की चर्चा आती है, जिन्हें विक्रमादित्य का विरुद (टाइटल) लगा या लगाया गया, जिनमें उल्लेखनीय हैं गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य और हेमचन्द्र विक्रमादित्य (जो हेमू के नाम से प्रसिध्द है)। परन्तु जिन विक्रमादित्य का हम गुणगान कर रहे हैं, वे भारत-भारती (मैथली शरण गुप्त) के अनुसार-【विक्रम कि जिनका आज भी संवत यहाँ पर चल रहा,
ध्रुव-धर्म के ऐसे नृपों का उस समय भी बल रहा।
नर रूप रत्नों से सजी थी वीर विक्रम की सभा,
अब भी जगत में जागती है जगमयी जिनकी प्रभा।
जाकर सुनो उज्जैन मानो,आज भी यह कह रही,
मैं मिट गई पर कीर्ति मेरी तब मिटेगी जब मही।】

Surendrasingh parmar

शुक्रवार, 27 मार्च 2015

राजाधिराज वंदनीय श्री जगदेव परमार

जगदैव परमार
1-जगदैव पवॉर कै पिता का नाम उदयादित्य था और राजा भौज उसकै पितृव्य थै
2-शिव की आराधना पर उदयादित्य कै यहॉ पर जगदैव का जन्म हुई था
3-इसी कारण सै जगदैव कौ महिपति कहता है
4-यौग्य हौतै हुए भी जगदैव नै पिता कै दैहान्त कै बाद अपनै बडै भाई कै लियै सिहासन का त्याग किया
5-कुन्तल नरैश नै जगदैव कौ अपनै पास रखा और पुर्ण रूप सै सम्मानित रखा
6-जगदैव नैआंध्रप्रदैश,चक्रदुर्ग नरैश ,दौरसमुद्र नरैश मलहर,गुजर्र नरैश जयसिंह एंव कर्ण पर विजय प्राप्त की
7-सिध्दराज जयसिंह कै पास पाठण जाकर उसकी राज्य सैवा मे रह जाता है ,जयसिंह कि पुत्री सै जगदैव का विवाह हौ जाता है 8-जगदैव त्याग कै बल सै जयसिंह की आयु वृध्दि करता है
9-कंकाली कौ शिशदान कर दान वीर कहलायै
10-जगदैव नै अपनै बल सै पाटण कि रक्षा की
11-जगदैव कि माता सौलकी कुल सै थी
12-जगदैव कि प्रथम रानी टौंक कै चावडा शासक राजा राजजी कि पुत्री वीरमति सै हुई
13-कंकाली कै पुत्र कालीया राक्षस कै कान काटै
14-जगदैव सा वीर व दानी जग मै कौई नही
15-राजा जगदैव नै ही कहा था-धारा भीतर मै बसूं , मौ भीतर है धार!
जौ मै चलु पिठ दै ,तौ लाजै जात पवॉर!!

सकलित-जगदैव परमार  री वात
लैखक- डॉ. महावीर सिहं गहलौत

रविवार, 1 मार्च 2015

परमार सम्राट महाराजा भोज

जब सृष्टि नहीं थी,धरती नहीं थी,जीवन नहीं था,
प्रकाश नहीं था,न जल था,न थल तब भी एक
ओज व्याप्त था | इसी ओज से सृष्टि ने आकार
लिया और यही प्राणियों के सृजन का सूत्र है |
समस्त भारत के ओज और गौरव का प्रतिबिम्ब
हैं राजा भोज | ये महानायक भारत कि संस्कृति
में,साहित्य में,लोक-जीवन में,भाषा में और जीवन
के प्रत्येक अंग और रंग में विद्यमान हैं ये
वास्तुविद्या और भोजपुरी भाषा और संस्कृति के
जनक हैं |

लोक-मानस में लोकप्रिय भोज से भोजदेव बने
जन-नायक राजा भोज का क्रुतित्व,अतुल्य वैभव
है | 965 इसवी में मालवा प्रदेश कि ऐतिहासिक
नगरी उज्जैनी में परमार वंश के राजा मुंज के
अनुज सिन्धुराज के घर इनका जन्म हुआ |

वररूचि ने घोषणा कि यह बालक 55 वर्ष 7
माह गौड़-बंगाल सहित दक्षिण देश तक राज
करेगा | पूर्व में महाराजा विक्रमादित्य के शौर्य
और पराक्रम से समृद्ध उज्जैन नगरी में पांच
वर्ष की आयु से भोज का विद्या अध्ययन
आरम्भ हुआ इसी पावस धरती पर कृष्ण,
बलराम और सुदामा ने भी शिक्षा पायी थी |
बालक भोज के मेधावी प्रताप से गुरुकुल
दमकने लगा | भोज कि अद्भुत प्रतिभा को
देख गुरुजन विस्मित थे | मात्र आठ वर्ष कि
आयु में एक विलक्षण बालक ने समस्त
विद्या,कला और आयुर्विज्ञान का ज्ञान प्राप्त
कर लिया | भोज कि तेजस्विता को द्देख
राजा मुंज का ह्रदय काँप उठा | सत्ता कि
लालसा में वाग्पति मुंज भ्रमित हो गए और
उन्होंने भोज कि हत्या का आदेश दे दिया |
भला भविष्य के सत्य को खड़ा होने से कौन
रोक सकता है !?!
काल कि प्रेरणा से मंत्री वत्सराज और चंडाल
ने बालक भोज को बचा कर सुरक्षित स्थान
पर पहुंचा दिया | महाराज मुंज के दरबार में
भोज का कृत्रिम शीश और लिखा पत्र प्रस्तुत
किया गया | पत्र पढ़ते ही मुंज का ह्रदय
जागा, वे स्वयं को धिक्कारने लगे,पुत्र-घात
कि ग्लानी में आत्मघात करने को आतुर हो
उठे तभी क्षमा-याचना के साथ मंत्री वत्सराज
ने भोज के जीवित होने कि सूचना दी | अपने
चाचा कि विचलित अवस्था देख भोज उनके
गले लग गए | महाराज मुंज ने अपने योग्य
राजकुमार को युवराज घोषित कर दिया | इसी
जयघोष के बीच महाराज मुंज ने कर्णत के
राजा तिलक के साथ युद्ध कि योजना बनायीं
और युद्ध अभियान पर चल दिए | 999 इसवी
में परमार वंश के इतिहास ने कर्वट ली |
महाराज मुंज युवराज कि घोषणा करके गए
तो वापस नहीं आये | गोदावरी नदी को पार
करने का परिणाम घातक रहा,महाराज मुंज
को जान गवानी पड़ी |

युवराज भोज महाराजाधिराज बन गए मगर
अभी वे राजपाठ सँभालने को तैयार नहीं थे |
भोज ने अपने पिता सिन्धुराज को समस्त
राजकीय-अधिकार सौंप दिए और वाग्देवी कि
साधना में तल्लीन हो गए | पिता सिन्धुराज,
गुजरात के चालुक्यों से युद्ध के लिए चल दिए
और भोज के रचना-कर्म ने आकर लेना शुरू
किया | भोजराज ने काव्य,चम्पू,कथा,कोष,
व्याकरण,निति,काव्य-शास्त्र,धर्म-शास्त्र,वास्तु-
शास्त्र,ज्योतिष,आयुर्वेद,अश्व-शास्त्र,पशु-विज्ञानं,
तंत्र,दर्शन,पूजा-पद्धति,यंत्र-विज्ञानं पर अद्भुत
ग्रन्थ लिखे | मात्र एक रात में चम्पू-रामायण
कि रचना कर समस्त विद्वानों को चकित कर
दिया,तभी परमार वंश पर एक और संकट आ
गया,महाराज सिन्धुराज रण-भूमि में वीरगति
को प्राप्त हो गए |
शूरवीर भोजराज ने शस्त्र उठा लिया,
युद्ध-अभियान छेड़ा,चालुक्यों को पिच्छे हटाया,
कोंकण को जीता | कोंकण विजय-पर्व के बाद
भोजराज का राज्याभिषेक हुआ | यह इतिहास
का दोहराव था कि ठीक इसी तरह अवंतिका
के सम्राट अशोक का राज्याभिषेक भी अनेक
विजय अभियानों के बाद ही हुआ था |
राज्याभिषेक के दिन महाकाल के वंदन और
प्रजा के अभिनन्दन से उज्जैन नगरी गूंज
उठी | विश्व-विख्यात विद्वान महाराज भोज
कि पटरानी बनाने का सौभाग्य महारानी
लीलावती को,लेकिन महाराज का अधिकाँश
समय रण-भूमि में ही बिता | विजय अभियानों
के वीरोचित-कर्मों के साथ विद्यानुरागी राजा
भोज ने अपने साहित्य-कला-संस्कारों को भी
समृद्ध किया | उनकी सभा पंद्रह कलाओं से
परिपूर्ण थी | राज्य में कालीदास,पुरंदर,धनपाल,
धनिक,चित्त्प,दामोदर,हलायुद्ध,अमित्गति,
शोभन,सागरनंदी, लक्ष्मीधरभट्ट,श्रीचन्द्र,नेमिचंद्र,
नैनंदी,सीता,विजया,रोढ़ सहित देश भर के पांच
सौ विद्वान रचनाकर्म को आकर दे रहे थे |

सोमवार, 8 दिसंबर 2014

परमार राजवंश २. बागड़ (मेवाड़ ) का राज्य डूंगरपुर और बांसवाड़ा


बागड़ मेवाड़ :- मेवाड़ का डूंगरपुर व् बाँसवाड़ा का क्षेत्र बागड़ कहलाता है | इस क्षेत्र पर डबरसिंह परमार ने विकर्मी की १०वीं सदी के उतरार्ध में राज्य स्थापित किया | बागड़ पर अधिकार करने वाला डबरसिंह कोन था ? ओझाजी के अपने ग्रन्थ राजपुताना के इतिहास में तीन स्थानों में अलग -अलग बाते लिखी है | ऐक स्थान पर इन्होने लिखा है की क्रष्णराज के बैरीसिंह व् डबरसिंह थे | जिनमे बैरीसिंह उसका उतराधिकारी हुआ और डबरसिंह को बागड़ का इलाका जागीर में मिला | दुसरे स्थल में लिखते हे '' मालवे के परमार राजा वाक्पतिराज के दुसरे पुत्र डंबरसिंह के वंशज में बांगड़ के परमार है | तीसरे स्थल पर कृष्णाराज (उपेन्द्र ) का वंशवृक्ष देते हुए कृष्णराज का पुत्र बैरीसिंह के दो पुत्र सीयक और डंबरसिंह लिखा है | परन्तु वि.सं. १२३६ फाल्गुण सुदी ७ शुक्रवार के अरथुणा के परमार शासक चामंड के शिलालेख से पाया जाता है की डंबरसिंह बैरीसिंह का छोटा भाई था |
त्स्यान्वे क्रमबंशादुदपादिवीर: श्री बैरीसिंह इति सम्भ्रतसिंह नाद : ||........|| तस्यानुज जो उम्ब रसिंह ( अर्थूणा शिलालेख ) अर्थात वाक्पति परमार का पुत्र था | वाक्पति ने अपने छोटे पुत्र डंबरसिंह को बागड़ की जागीरी दी |
डंबरसिंह का उतराधिकारी धनिक था | उसने उज्जेन में धनीकेश्वर शिवमंदिर बनवाया | इसके बाद इसका भतीजा चच बागड़ का स्वामी हुआ | चच के बाद कंकदेव बागड़ का शासक हुआ | कंकदेव का चच से क्या सम्बन्ध था ? मालूम नहीं होता | ओझाजी ने कंकदेव को चच का पुत्र होने की संभावना की है | कंकदेव सीयक सेकेंड (हर्ष ) के पक्ष में कर्नाटक के शासक खोट्टीग्देव राष्ट्रकूट की सेना का संहार करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ | कंक्देव के बाद क्रमशः चंडप ,सत्यराज ,लिबराज, मंडलीक (छोटा भाई ) व् चामुंडाराज गद्धी बेठे | इसने वि.सं. ११३६ ई.१०७९ में अर्थूणा (बाँसवाड़ा) में मंडलेश्वर का शिव मंदिर बनवाया | इसके समय का अंतिम शिलालेख वि.सं. ११५९ ई.११०२ का है | इसका पुत्र विजय सिंह हुआ | इसका समय लगभग वि.सं. ११६५ -११९० तक था | मेवाड़ के गुहिल शासक सामंत सिंह से मेवाड़ का राज्य छूटने पर उसने विजय सिंह के वंशजों से वि. १२३६ के लगभग बागड़ का राज्य छीन लिया था  | बागड़ के परमारों के वंशज आजादी से पूर्व सोंथ (महीकांठा -गुजरात ) के राज थे |

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

परमारों के राज्य १. मालवा के वीर विक्रमादित्य और राजा भोज जिन्होंने अपना डंका पूरी पृथ्वी पर बजाया

१.मालवा :-  मालवा के परमारों के शासकों के पूर्वजों में सबसे पहला नाम उपेन्द्र मिलता हे | परमारों का शिलालेखीय आधार पर सबसे प्रथम व्यक्ति धूमराज था | मालूम होता हे वह व्यक्ति मालवा व् आबू के परमारों का पूर्व पुरुष था सही वंशक्रम कृष्णराज (उपेन्द्र ) से प्रारंभ होता हे जिसका दूसरा नाम कृष्णाराज भी था | उदयपुर प्रश्ति से ज्ञात होता हे की उसने राजा होने के सम्मान प्राप्त किया उसने कई यग्य किये यह प्रश्ति ११५८-१२५७ के मध्य की है | इसके बाद क्रमशः बैरसी ,सीयक ,व् वाक्पति गद्धी पर बेठे | उसके विषय में उदयपुर ग्वालियर राज्य के शिलालेख में लिखा हे | की उसके घोड़े गंगा समुन्द्र में पानी पीते थे | संभवत वाक्पति राष्ट्रकूटो का सामंत था | उनके द्वारा गंगा तक किये गए आक्रमणों में वह भी साथ था | इसका पुत्र बैरसी 11 भी वीर हुआ | उसके वि. सं. १००५ माघ बदी अमावस्या के दानपत्र से विदित होता हे की वह राष्ट्रकूटों का सामंत था | परन्तु वि.सं. १०२९ ई.सं,. ९७२ में उसने राष्ट्रकूट शासक खोट्टीग्देव पर चढ़ाई की और उसेहरा कर पराधीनता का जुआ फेंक दिया पाईललछी नाम माला -धनपाल इसने हूणों को भी हराया | इसके दो पुत्र मुंज व् सिन्धुराज थे | मेरुतंग की प्रबंध चिंतामणि से ज्ञात होता हे की मुंज सीयक का और सपुत्र नहीं था | वह उसे मुंज घास पर पड़ा मिला था | मुंज घास पर पड़ा मिलने के कारन उसका नाम मुंज रखा | बाद में उसके भी पुत्र हो गया जिसका नाम सिन्धुराज रखा था | सीयक का मुंज पर अधिक प्रेम था | इस कारन उसे हि अपना उतराधिकारी चुना और निश्चय किया गया की मुंज के बाद उसका भाई सिन्धुराज उतराधिकारी बनेगा | मुंज घास पर बालक के मिलने की कहानी कल्पित मालूम देती हे | वास्तव में मुंज व् सिन्धुराज दोनों हि सीयक के भाई थे |
मुंज सीयक सेकंड का उतराधिकारी हुआ | मुंज की वाक्पति उल्पलराज ,अमोध्वर्ष ,प्रथ्वीवल्लभ आदी उपाधिया थी | अतः मुंज की शिलालेख में वाक्पति,उत्पल आदी नमो से भी अंकित किया गया है | मुंज का समय १०३० से १०५१ वि.तक था | इस समय में उसने चेदी नरेश युवराज को पराष्त कर उसकी राजधानी त्रिपुरी पर अधिकार कर लिया | मेवाड़ के शासक शक्तिकुमार वि.१०३४ को परास्त किया तथा किराडू प्रदेश बलिराज से जीतकर कोथेम दानपत्र और नवसाहसांक धस्ती से इस विजय की पुष्टि होती होती है | अपने पुत्र अरण्यराज को आबू दे दिया | जालोर आपने पुत्र चन्दन को तथा भीनमाल आपने भतीजे दूसाल को दे दिया | इस शासक ने मूलराज सोलंकी को भी हराया था तब धवल हस्तीकुंडी का राष्ट्रकूट से रक्षा से प्राथना की | धवल ने उसकी सहायता की | मुंज ने वाक्पति तैलप को कई बार हराया | अतः तैलप चालुक्य ने उसे केद कर लिया | जेल में हि मुंज का तैलप की पुत्री मृणालवती से प्रेम हो गया | मुलम होने पर तैलप ने मुंज को मरवा दिया |
मुंज स्वयं ऐक अच्छा विद्वान् था तथा विद्वानों का सम्मान करने वाला भी आदमी था | उसके दरबार में नवसाह सांक का करता पदमगुप्त,दशरूपक का करता धनज्जय ,धनज्जय का भाई धनिक ,'पिगलछन्दसूत्र 'की टीका करने वाला हलायुद्ध ,सुभाषितरत्नसन्दोह का करता अमितगती ,धनपाल आदी प्रसिद्द विद्वान् रहते थे | मंजू के बाद उसका भाई सिन्धुराज गद्धी पर बैठा | इस शासक ने हूँण ,कौशल ,बागड़ लाट और नागों के राज्य बैरगढ म.प्र. को विजय किया | इस नविन साहस के कारन इसे नवसाहसांक कागा गया | नागों ने सिन्धुराज से मैत्री बढ़ाने के लिए अपनी पुत्री शशिप्रभा का विवाह सिन्धुराज से कर दिया | सिन्धुराज वि.सं.१०६६ से कुछ पूर्व गुजरात के सोलंकी चामुंडाराज के साथ हुयी लड़ाई में मारा गया |
सिन्धुराज के बाद उसका पुत्र भोज गद्धी पर बैठा | यह मालवा के परमारों में अत्यधिक ख्याति प्राप्त शासक हुआ | उदयपुर के शिलालेख में मलय पर्वत से दक्षिण तक राज्य करना लिखा है | इस राजा ने इंद्ररथ तोग्ग्ल ,भीम आदी को पराजीत किया तथा कर्नाट ,गुर्जर (गुजरात ) और तुरुश्कों (मुसुल्मानो ) को जीता | कलचुरी गांगेयदेव को जीता | उसने तैलप के वंशज जय सिंह चालुक्य को जीतकर मुंज की म्रत्यु का बदला लिया | प्रथ्विराज विजय से ज्ञात होता हे की भोज ने चौहान वीर्यराज को भी मारा | भोज का चंद्रेल शासक विद्याधर चंदेल व् ग्वालियर के कच्छपघात (कछवाह ) कीर्तिराज व् नाडोल ने अणहिल से भी संघर्ष हुआ पर इन तीनो संघर्षों में भोज का पराजय का मुंह देखना पड़ा कलचुरी व् गुजरात के सोलंकी दोनों हि भोज के शत्रु थे | भोज के अंतिम समय में भीम सोलंकी व्  गांगेय का पुत्र कर्ण ने मिलकर भोज पर आक्रमण किया | इसी समय भोज का देहांत हो गया | राजा भोज स्वयं विधारसिक एवं विद्वान् थे | उसने स्वयं सरस्वती कंठाभरण (अलंकार शास्त्र ) राजमार्तण्ड (योग शास्त्र ) राज्म्रगांक ,विद्व्जन्न मंडन (ज्योतिष शास्त्र ) समरांगण (शिल्प शास्त्र ) आदी ग्रन्थ लिखे| धारा नगरी में सरस्वती कंडाभरण नामक शिक्षा संसथान बनवाई जिसमे कूर्मशतक ,भ्रतहरिकारिका आदी ग्रंथो को शिलाओं पर खुदवाया | उसके दरबार में अनेक विद्वान् रहते थे |

उन विद्वानों में भोज प्रबंध का करता पंडित बल्लाल ,प्रबंध चिंतामणि का कर्ता ,मेरुतुन्ग्लिक मंजरी हका करता कर्ता धनपाल ,यजुर्वेद का वाजसनेयी संहिता का कर्ता बजट का पुत्र उवट आदी का विशेष स्थान है |
यह राजा कला और धर्म में पूर्ण आस्था रखने वाला राजा था | इसने कई भव्य मंदिरों व् झीलों का निर्माण करवाया ,जिनमे चितोड़ स्थ्ति त्रिभुवन नारायण का विशाल शिव मंदिर ,अम्बाजी का मंदिर तथा भोपाल की विशाल शिव मंदिर ,अम्बाजी का मंदिर तथा भोपाल की विशाल झील (भूपाल ताल के नाम से प्रसिद्ध ) आदी प्रमुख है | भोज का सबसे पहला ताम्रपत्र वि.सं. १०९९ ई. १०४२ तथा उसके उतराधिकारी जय सिंह का ताम्रपात्र वि.सं.१११२ ई.१०५५ का है | इससे मालूम पड़ता है की भोज की म्रत्यु वि १०९९ से वि. १११२ के मध्य किसी समय हुयी |
भोज का उतराधिकारी जयसिंह हुआ | इस समय कलचुरियों एव गुजरात के सोलंकियों ने धार नगरी को घेर रखा था | जयसिंह ने इनके विरुद्ध अपने शत्र कर्णट के शोमेश्वर से सहायता मांगी | सोमेश्वर ने भी राजनेतिक स्थ्ति को देखते हुए जयसिंह को पराजय का मुंह देखना पड़ा परन्तु आगे चलकर करणाट के चालुक्य सोमेश्वर से जयसिंह का फिर संघर्ष हुआ | जयसिंह इस संघर्ष में मारा गया | इस घटना की पुष्टि नागपुर प्रशस्ति वे बेलिगामी शिलालेख से होती हे |

जयसिंह के बाद उदादित्य गद्धी बेठा| इसने शाकम्भरी शासक दुर्लभराज चौहान से सहायता प्राप्त कर कर्णाट के चालुक्यो को हराया और मालवा को अपने अधिकार में किया | ग्वालियर के पास उदयपुर इसी उदादित्य का बसाया हुआ माना जाता है | जहाँ से कई शिलालेख प्राप्त हुए | उदादित्य के दो पुत्र लक्ष्मीदेव और नर्वरमा , नर्वरमा का ऐक भाई भी था जो जनमानस में जंगदेव पंवार के नाम से प्रसिद्द हुआ | चेदिराज जसकर्ण ने जब मालवा के शासक लक्ष्मीदेव( जगदेव का भाई ) पर आक्रमण किया तब जगदेव ने जस्कर्ण को पराजय किया | वि.सं.११५१ ई.१०९४ में लक्ष्मीदेव की म्रत्यु होने पर उसका छोटा भाई नर्वरमा गद्धी पर बेठा तब जसदेव गुर्जर देश के राजा सिद्धराज जयसिंह सोलंकी के पास आ रहा | उस राजा के पास रहकर इसने अद्भुत पराक्रम का परिचय दिया | सिद्धराज सोलंकी ने जब मालवा पर आक्रमण किया तब जगदेव से यह सहन नहीं हुआ और कुंतल के शासक पर्मर्दी के पास चला गया | इस राजा ने जगदेव को जागीरी दी | जगदेव के डोगरा गाँव के शिलालेख वि.सं.११६९ ई.१११२ का मिला है | पर्मर्दी ने जब आंध्र पर चढ़ाई की तब जगदेव ने सेनापति के रूप में अपने स्वामी के रक्षार्थ शत्रु से लड़ा और शत्रु को पराजीत कर परमारों की कीर्ति पताका फहरायी |

    वि.सं.११३३ ई.१०७६ में परमर्दीदेव की तरफ से बस्तर के नागों को पराजीत किया तथा शत्रु के अनेक हाथियों का हरण कर लिया | जगदेव जितना वीर था उतना हि दानी था | उसने ऐक उपाध्याय के काव्य पर प्रसन्न होकर आधी लाख मुद्राएँ दान में दी | उसकी दानवीरता के बारे में डोगर गाँव के शिलालेख में लिखा है | न वह देश था न वन ग्राम ,न वह सभा ,न वह दिन ,जहाँ जगदेव के यश का गान न हो | वीरता ,दान व् धर्मपाल में वह सबसे आगे था | अतः use त्रिविधवीर कहा गया है | तथा ऐक पुत्री श्यामलदेवी का नाम उदयपुर शिलालेखों में मिलते हे | श्यामलदेवी का विवाह मेवाड़ के राजा विजय सिंह गुहिल से हुआ | उदादित्य के समय के शिलालेख वि.सं. ११३७ उदयपुर ग्वालियर के पास का व् दूसरा झालरा पाटन राजस्थान का वि.सं. ११४३ के मिले हे |

उदादित्य के बाद उसका पुत्र लक्ष्मीदेव गद्धी पर बैठा | लक्ष्मीदेव ने त्रिपुरी के कलचुरियों अडंग व् कार्लिंग की सेना को धरासायी किया | कर्णोट के राजा विक्रमादित्य की सेना में रहकर अनेक युद्ध अभियानों में भाग लिया | उसके समय में मुस्लिम सेना मालवा तक बढ़ गयी थी | उसने मुस्लिम सेना को मालवा से बहार किया |
लक्ष्मिवर्मा के बाद उसका छोटा भाई नर्वरमा उसका उतराधिकारी हुआ |इसके समय में चंदेलों ने मालवा के लक्ष्मी को अपह्रत कर लिया था | इस राजा को चालुक्य नरेश सिद्धराज जयसिंह से भी पराजीत होना पड़ा | नर्वरमा का देहांत वि.सं. ११९० ई.११३३ में हुआ |

नर्वरमा के बाद इसका पुत्र यशोवर्मा गद्धी पर बेठा | इसके समय में सिद्धराज जयसिंह सोलंकी ने मेवाड़ का वह भाग जो मुंज के समय मालवों के परमारों के अधीन चला आ रहा था |अपने अधिकार में कर लिया तथा उसने मालवा को जीत लिया | यशोवर्मा का ऐक दानपत्र वि.सं.११९२ का है | यशोवर्मा के बाद क्रमशः जयमवर्मा ,अजयवर्मा ,विन्ध्यवर्मा,सुभटवर्मा ,अर्जुनवर्मा,देवपाल,जयतुगिदेव ,जयवर्मा सेकेंड , जयसिंह थर्ड ,अर्जुनवर्मा सेकेंड ,भोज सेकेंड और जयसिंह फिफ्थ ने मालवा पर शासन किया | जयसिंह का ऐक शिलालेख वि.स. १३९९ श्रावण बदी १२ का है | जलालुधिन फिरोहशाह खिलजी ने वि.सं.१३४८ में उज्जेन के मंदिरों को तोडा | अलाउधिन ने मालवा का पूर्वी हिस्सा छीन लिया और संभतः मुहम्मद तुगलक के हाथो मालवा से परमार राज्य का अंत हुआ |

      यहाँ पर में जिक्र में महापुरुष विक्रमादित्य का करना चाहूँगा पहले भी उत्पत्ति के समय कर चूका हूँ फिर भी दुबारा कर रहा हूँ | गंधर्वसेन के पुत्र वीर विक्रमादित्य मालवा का शासक बना | तब इसने अपनी वीरता से अरब तक का क्षेत्र जीतकर अपने राज्य में मिला लिया | काबा जो आज मुसलमानों का पवित्र स्थान हे ,कहते हे की वहां शिवलिंग की स्थापना विक्रमादित्य ने की थी | इस्लाम के उदय होने से पूर्व काबा में ३६० मूर्तियाँ होने के शक्त ग्रंथो में भी प्रमाण मिलते हे | हजरत मोहम्मद ने इस्लाम धर्म में इन्ही मूर्तियों की पूजा का खंडन किया था | हज के लिए जाने वाले आज भी काबे की सात परिक्रम करते हे और वह केवल सफ़ेद चादर में हि जाते हे | यह हिन्दू पद्धति है | सम्राट विक्रमादित्य का प्रभुत्व उस समय सारा विश्व मानता था | काल गणना विक्रमी संवत से हि की जाती थी | जो इसी की दें है | समय निर्धारित करने का जो गौरव आज ग्रीनविच (इंग्लेंड ) को मिला है ,वह गौरव कभी इस सम्राट की राजधानी उज्जेन को मिला था | पर्थम मध्यान्ह की गणना यही से की जाती थी | इसी के ग्रामोतर व्रत (मेरिडियन ) से देशांतर सूचक रेखाओं की गणना की जाती थी | इनके दरबार में प्रसिद्ध ज्योतिषी एव खगोलविद वराह मिहिर ने यहाँ वेधशाला चला रखी थी | जहाँ ऋतू विज्ञानं के अध्धयन की व्यवस्था थी | महाराजा विक्रमादित्य के दरबार में नो रतन रहते थे | १.कालिदास (प्रधानमन्त्री ) २.शंकु ३.वररूचि ४.घटस्क्पर्र ५.क्षपणक ६.अमरसिंह (अमरकोश के निर्माता ) ७.बैताल भट्ट ८.वराह मिहिर 9.धन्वन्तरी | विक्रमादित्य के पोत्र ने शकों को पराजीत कर सन 78 में शक संवत की नींव डाली थी |